कॉलेज से अमेरिकन कॉर्पोरेट तक .....!!!!
इंजिनियरिंग कॉलेज के किसी विद्यार्थी के लिए कॅंपस प्लेसमेंट से बढ़कर शायद ही कुछ हो और कंपनी अमेरिकन हो तो भाई क्या कहने !!! पॉकेट मनी से एक आकर्षित पॅकेज का परिवर्तन आँखो मे कब ना जाने कितने सपने बुन देता है ,पता ही नही चलता| फिर शुरू होता है एक इंतजार चकाचौंध भरी कॉर्पोरेट दुनिया के उन लोगो के बीच जगह बनाने का , जिन्हे कॉलेज तक सिर्फ़ दूर से ही देखा होता है | सूट बूट पहेने , फ़र्राटे दार अँग्रेज़ी बोलते हुए कुछ लीपे पुते चेहरे अनायास ही अपनी तरफ ध्यान आकर्षित कर लेते है |
एक लंबे इंतजार के बाद फिर दिन आता है कॉर्पोरेट मे कदम रखने का ...!
दफ़्तर का पहला दिन , माफ़ कीजिएगा "ऑफीस" का पहला दिन , दफ़्तर शब्द उस झूठी दिखावे वाली दुनिया के लिए थोड़ा चीप है | पहले दिन आपकी ऐसे खातिर होती है मानो दामाद शादी के बाद पहली बार दुल्हन लेने ससुराल आया हो | कंपनी द्वारा एक आलीशान होटेल मे रहने के लिए किया गया इंतज़ाम कही ना कही "फील गुड" करवा ही देता है.| दफ़्तर मे भी उँचे रुतबे वाले लोगो द्वारा दी गयी तवज्जो “फील गुड” के एहसास को एक कदम ओर आगे ले जाती है| इतनी मनुहार और आव भगत का कारण तो समझ नही आता परंतु कुछ पॅलो के लिए अंदर तक सुकून ज़रूर दे जाता है|
पर सयानी बिल्ली कब तक खैर मनाएगी,कुछ दिन बाद "फील गुड " का एहसास बढ़ते काम के दबाव मे ना जाने कब पसीने के साथ वाष्पिकृत हो जाता है याद ही नही रहता| वही मॅनेजर जो पहले दिन आपके स्वागत मे थाली ले कर द्वार पे खड़ा था , नागिन बन बिना धुन के सिर पर नाचने लगता है |
दफ़्तर के [10- 7] का समय कुछ दीनो मे ही [ 10 - इन्फिनिटी) बन जाता है | उस झूठी ओर छलावे वाली दुनिया का सच चंद दिनो मे आपके सामने होता है जिसकी चकाचौंध के कॉलेज मे हम दीवाने हुआ करते थे | उन्ही लीपे पुते चेहरो की वो कृत्रिम मुस्कुराहट आपको आने वाले दिन के खराब होने का एहसाह प्रातः काल ही करा देती है| परिवर्तन प्रकृति का नियम है परंतु इस प्रकार के सूनामी रूपी परिवर्तन की कल्पना शायद ही कोई कॉलेज से निकलते हुए करता है |
जहा एक ओर कॉलेज मे हँसने के लिए किसी कारण की ज़रूरत नही होती थी वही दूसरी ओर दफ़्तर मे हँसने के लिए झूठे आयोजन किए जाते है | उदाहरण के तौर पे " फन फ्राइडे " को ही ले लीजिए , फ्राइडे को किया जाने वाला वाला काल्पनिक आयोजन जहाँ भद्दे नृत्य , बेसुरे गानो से आपको खुश करने का प्रयत्न किया जाता है | कॉलेज की तो नही पर हाँ ...आपको अपने प्राथमिक विद्यालय मे होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम के बिगड़े स्वरूप की याद ज़रूर आ जाएगी |
कुल मिला कर अमेरिकन कॉर्पोरेट दुनिया उन ज़मीन से जुड़े भारतीयो के लिए तो नही है जिनके जीवन की संरचना झूठ ओर दिखावे पे नही टिकी हुई है | “Human Being” से “ Human Resource “ बन ने की प्रक्रिया मे हमारे संस्कार, परिवार और रिश्ते नाते कही दूर पीछ रह जाते है |
इस काल्पनिक दुनिया पर टिप्पणी करते हुए एक शायर की कुछ पंक्तिया अक्सर मुझे याद आ जाती है -----
" कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ... ये नये मिज़ाज का शहर है , ज़रा फांसले से मिला करो !!!!!
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कुलदीप ||||
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